यह शोधपत्र एक बड़े पैमाने के भाषा मॉडल का उपयोग करके काल्पनिक बौद्ध धर्मग्रंथों के निर्माण का एक केस स्टडी प्रस्तुत करता है, और दार्शनिक एवं साहित्यिक दृष्टिकोणों से इन निर्मित ग्रंथों का विस्तृत विश्लेषण करता है। इन निर्मित ग्रंथों में पाई जाने वाली वैचारिक सूक्ष्मता, समृद्ध बिम्बात्मकता और संकेतों की सघनता, उन्हें केवल उनके यांत्रिक मूल के कारण खारिज करना कठिन बना देती है। इससे यह प्रश्न उठता है कि हमारे समाज को उन तकनीकों के प्रति कैसी प्रतिक्रिया देनी चाहिए जो मानव अर्थ-निर्माण को बाधित करने का खतरा पैदा करती हैं। यह शोधपत्र सुझाव देता है कि बौद्ध दर्शन, अपने स्वभाव से ही, अनुकूलन के लिए उपयुक्त स्थिति में है।